गर्व का क्षण: विप्र समाज को समर्पित एक अद्वितीय छांव
यधो..वत..गतो..वत..
मंत्र में परिवर्तन सम्भव नहीं है .. श्लोक में परिवर्तन संभव नहीं है.. पर आप भावार्थ बदल सकतें है .. परन्तु मूल साथ जरूरी है..
यहाँ कुछ बदलाव की ज़रूरत, आवश्यकता नही है…
उद्देश्य हमारा कंकर पत्थर इकट्ठे करने का नहीं रहा.. ना रहेगा .. पर छांव जरूरी है.. एक छांव है ये भवन हर विप्र जन के लिए .. जो विचार-विषय-विमर्श-विरोध कर पायें।
ठंडा पानी पीकर एक बाहमण सो जाए ..
इतना कर दिया है .. जय करो .. सुशील ओझा जी.. जय जय के लायक है- आदर के लायक है।
एक-एक इंच, एक एक ईंट, एक एक सरिये के लिए इस आदमी ने इतनों के अहसान लिए है ना .. जिसकी इनको कोई ज़रूरत नहीं थी
.. जरूरत हमारी थी.. अहसान आप ने लिये..
ब्राह्मण भाई को सादर प्रणाम … साधुवाद
.. इनके पाँव धोकर पियें तो भी कम ही है .. मेरी निजी नजर मे तो..
सपने सच होते हैं .. ईमानदारी से कोशिशें करनी पड़ती है ..
करोड़ों की लागत से राजधानी में बना ये भवन 1 मई से आप का है.. गर्व करें
.. ब्राह्मण समाज का मस्तक गौरवान्वित है … हम आनन्दित है … उल्लासित हैं।
राजेश श्रीमाली
जोधपुर