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विप्र फाउण्डेशन - पृष्ठभूमि
भारत का सांस्कृतिक इतिहास इस सत्य का साक्षी है कि सृष्टि के उषा काल से लेकर आज तक ब्राह्मणों ने अपने अपूर्व चिंतन एवं तप से ज्ञान-विज्ञान अर्जित करके इस महादेश एवं समाज का शोभन श्रृंगार किया है । वह स्वयं के लिए नहीं राष्ट्र, संस्कृति एंव मानवता के लिए जीता आया है । ब्राह्मणों का मूल मंत्र ही रहा है “सर्वे भवन्तु सुखिन:” । समाज एवं राष्ट्र जब भी दिग्भ्रमित हुआ तो ब्रह्म-कर्तव्य से अनुप्राणित होकर विप्र मनिषियों ने सुपथ दिखाया । जब भी शासन वर्ग अपने प्रजा पालन धर्म से विमुख हुआ तो भगवान परशुराम बनकर उनका परिष्कार किया ।
कालक्रम से समय बदला, परिस्थितियाँ बदली और संस्कृतियों के संघात में जीवन दृष्टि भी प्रभावित हुई । पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण का पर्याय बन गया । परूषार्थ चतुष्टय में अर्थ और काम ही धर्म और मोक्ष को लीलते गये । स्व-देश एवं स्व-संस्कृति की गौरवमयी भावना के क्रमश: क्षीण होते जाने से क्षेत्रवाद, वर्गवाद, सम्प्रदायवाद, जाति-उपजाति एवं भाषावाद लोगों के दिल एंव दिमाग पर ऐसे छा गए कि पूर्वजों के उदात्त जीवन मूल्य गौण होते चले गये ।
छीजत के इस दौर में ब्राह्मण समाज की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण एंव आवश्यक हो गई है । देश, समाज और व्यक्ति-व्यक्ति में तेजस्विता का संचार करने का प्राथमिक दायित्व परम्परा एवं नियति दोनों ही दृष्टियों से ब्राह्मणों के कंधों पर आता है ।